Friday, August 30, 2013

जमीन व उसका प्रयोग


 
सरकार ने खेतिहर जमीन को संपत्ति कर के दायरे से बाहर कर दिया है। किसानों के विरोध के बाद सरकार ने वित्त विधेयक के इस प्रावधान को वापस ले लिया है। सरकारी रिकॉर्ड में शहरी सीमा के भीतर जो जमीन कृषि भूमि के तौर पर दर्ज है उस पर संपत्ति कर नहीं लगेगा। 

वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने खेतिहर जमीन पर संपत्ति कर लगने की आशंकाओं को खारिज करते हुए वित्त विधेयक के जरिये 1993 के संपत्ति कर अधिनियम में संशोधन का प्रावधान किया है। उन्होंने कहा मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यूपीए सरकार की नीति कृषि भूमि पर संपत्ति कर लगाने की नहीं है।उन्होंने कहा कि पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के कुछ फैसलों की वजह से इस तरह की आशंकाएं बनी हैं। मगर अब यह मसला समाप्त हो गया है।

उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम-1959 तथा उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम-1916 के तहत निकायों को अधिकार रहा है कि वे अपने स्वामित्व वाली भूमि का निस्तारण अधिनियम के तहत बेचकर, किराए पर, पट्टे पर, बंधक रखकर या दान देकर कर सकते है। निकायों को बस सरकार द्वारा हस्तान्तरित भूमि के निस्तारण के लिए ही सरकार की स्वीकृति लेनी होती है। यद्यपि पिछली बसपा सरकार ने निकाय अधिनियम में संशोधन कर ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि सरकार अपने स्तर से भी निकाय की जमीन के निस्तारण संबंधी आदेश दे सकती है। उत्तर प्रदेश में 13 नगर निगमों सहित 194 नगर पालिका परिषद व 423 नगर पंचायतों के पास शहरी क्षेत्र में इधर-उधर काफी जमीन है।इसके अतिरिक्त देहात क्षेत्र की जमीन पर जिला-परिषद्,ग्राम-सभा द्वारा बनाए गए नियम लागू होते हैं.किसी भी एजेंसी के पास जमीन का डाटाबेस नहीं हैं और एक ही जमीन को कभी-कभी अनेक एजेंसी अपनी बताती है. इसी भय के कारण इन एजेंसियों द्वारा जो नक़्शे स्वीकृत होते हैं अथवा जो अनुमति-पत्र जारी होतेहैं, उसमें यह क्लाज जरूर रहता है कि किसी एजेंसी  की आपत्ति पर यह नक्शा या अनुमति पत्र स्वयं निरस्त माना जाएगा.इसके कारण आज भी इस देश में मल्टी-स्टोरी के गिरने,तथा ७५ निरपराध लोंगो के मरने पर हर एजेंसी का अफसर तोता-रटंत भाषा बोलता है कि बिल्डिंग बिना  अनुमति  के बनी थी,जब कि सभी लोग जानते हैं कि आप अपनी जमीन पर केवल ईंट, बालू, इत्यादि रखना शुरू किये कि उक्त एजेंसी के लोग अपनी शर्तों पर ही मकान बनाने देंगे.

कानपुर, में रोक के बाद भी बन रहे अवैध निर्माण व सील के बाद हो रहे काम को देखते हुए सिद्ध है कि कर्मचारी खुद बिल्डर के साथ मिलकर बिल्डिंग बनाने में लगे हैं। पनकी, श्यामनगर, जाजमऊ, हरबंश मोहाल, रामबाग, किदवईनगर समेत कई जगह निर्माण कार्य चल रहा है। कई जगह तो सील पट्टी हटाकर लोग काम कर रहे रहे हैं। स्थिति यह है कि अफसरों को भी कर्मचारियों की जानकारी है लेकिन चुप्पी साधे हुए हैं।कागज़ में सभी प्रवर्तन प्रभारियों को आदेश हैं कि हर हाल में सील इमारतों में काम न होने दिया जाए। काम हो रहा है तो मुकदमा दर्ज कराएं

उत्तर-प्रदेश में  1.94 लाख अवैध निर्माण चिह्नित : विकास प्राधिकरणों-परिषद द्वारा शासन को भेजी रिपोर्ट के मुताबिक संबंधित शहरों में 1.94 लाख अवैध निर्माण चिह्नित किए गए हैं। इनमें से 1.13 लाख के ध्वस्तीकरण आदेश पारित किए गए हैं। गौर करने की बात है कि इनमें से एक-चौथाई यानी 28 हजार पर ही बुलडोजर चले हैं। 52 हजार अवैध निर्माण आज भी बने हैं उन्हें ध्वस्त करने की जहमत प्राधिकरण-परिषद प्रशासन नहीं उठा रहा है। लखनऊ विकास प्राधिकरण ने 3401 अवैध निर्माण ही चिह्नित किए हैं।निर्माण के वक्त उन्हें रोकने के प्रयास नहीं किए गए और न जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़े कदम उठाए गए।कानून का उल्लंघन कर बड़े-बड़े कांप्लेक्स व अपार्टमेंट बने हैं ज्यादातर ऐसे कांप्लेक्स व अपार्टमेंट विकास प्राधिकरण-परिषद से या तो बिना मानचित्र पास कराए बन रहे हैं या फिर स्वीकृत मानचित्र के विपरीत हैं। वैसे तो इस पर अंकुश के लिए प्राधिकरण-   भारी िषद में -भरकम अमला है लेकिन जिस तरह से अवैध निर्माण बढ़ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि उनकी दिलचस्पी अवैध निर्माणों पर प्रभावी अंकुश लगाने की नहीं है।

नई दिल्ली,: राष्ट्रीय राजधानी में करीब 150 एकड़ में फैले एक अनधिकृत औद्योगिक क्षेत्र को नियमित करने में हुई अनियमितता का पता चला है, जो कथित तौर पर दिल्ली सरकार के कुछ खास अधिकारियों की मिलीभगत से हुई है। दिल्ली सरकार के शहरी विकास विभाग के एक अधिकारी द्वारा सौंपी गई निरीक्षण रिपोर्ट में करोड़ों रुपये के इस घपले का जिक्र किया गया है। उन्होंने इस अनियमितता की सतर्कता जांच की सिफारिश की है। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली सरकार के अधिकारियों ने शिव विहार और शाहबाद एक्सटेंशन पार्ट-2 में अवैध रूप से प्रोविजनल रेगुलराइजेशन सर्टिफिकेट (पीआरसी दिया। यह प्रमाण पत्र  आवासीय कॉलोनी के नाम पर गोदाम बनाने और वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए दिया गया। शाहबाद एक्सटेंशन पार्ट-2 के तहत 1304 और एलओपी 07:567 पंजीकरण संख्या वाली करीब 657 बीघा जमीन का इसमें जिक्र किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि समूचे इलाके में विशाल और बड़े पैमाने पर औद्योगिक परिसर बने हुए हैं। शहरी विकास विभाग के अनधिकृत कॉलोनी प्रकोष्ठ उप सचिव रविंद्र सिंह परमार ने अपनी रिपोर्ट में कहा, यह परिसर 2,000 वर्ग मीटर से भी बड़े हैं और यहां तक की इनमें से कुछ 5,000 वर्ग मीटर आकार के हैं। यह देखकर हैरत होती है कि इन औद्योगिक भूखंडों या परिसरों में कोई आवासीय इलाका नहीं है और सिर्फ यहां मजदूर देखने को मिले। आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक 100 वर्ग मीटर के 876 भूखंड हैं, 543 भूखंड 100 वर्गमीटर से बड़े हैं और 250 वर्ग मीटर से बड़े 720 भूखंड हैं। उन्होंने कहा, सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि इनमें से किसी भी भूखंड का इस्तेमाल आवासीय उद्देश्य के लिए नहीं किया गया है, बल्कि करीब-करीब इन सभी भूखंडों का इस्तेमाल औद्योगिक गतिविधियों या गोदाम के रूप में किया गया है। अधिकारी ने शिव विहार कॉलोनी में करीब 10 एकड़ जमीन के बारे में भी सरकारी नियमों का उल्लंघन पाया है। उन्होंने रिपेार्ट में कहा कि इस मामले की जांच सतर्कता विभाग से कराए जाने की जरूरत है ताकि सचाई सामने आ सके और यह पता चल सके कि आखिरकार ऐसा कैसे हुआ। आरटीआइ के जरिए निरीक्षण रिपोर्ट प्राप्त करने वाले अधिवक्ता विवेक गर्ग ने बताया कि ऐसी कई बातें हैं जो दिल्ली सरकार के कुछ खास अधिकारियों की संलिप्तता की ओर इशारा करती हैं, जिनकी भू माफिया के साथ मिलीभगत है। इस मामले की उचित जांच के लिए हम जल्द ही दिल्ली सरकार के सतर्कता विभाग और सीबीआइ के पास जाएंगे।

सीएजी का कहना है ---अनियोजित विकास के पीछे सरकारी हाथ: सीएजी

सीएजी की रिपोर्ट में दिल्ली भूमि एवं भवन विभाग की कार्यप्रणाली पर अनेक प्रश्न उठाये हैं। 2005-2010 के दौरान भूमि से संबंधित 2615 मामलों में दिल्ली सरकार मुकदमा हारी है2008 में दिल्ली सरकार ने 1639 अनाधिकृत कालोनियों को नियमित करने का एक अभियान भी प्रारंभ किया, जो यह बताता है कि दिल्ली का किस तरह से अनियोजित विकास हुआ।

केडीए (कानपुर )की तर्ज पर अब नगर निगम भी अपनी संपत्तियों का लेखा जोखा तैयार करने जा रहा है। नगर आयुक्त ने काकादेव व भगत सिंह मार्केट लाटूश रोड स्थित जमीन चिह्नित करने के आदेश दिए हैं।

नगर निगम के पास चार हजार से ज्यादा दुकानें व फ्लैट, 675 पार्क समेत अरबों रुपये की संपत्तियां हैं। अगर संपत्तियों की ठीक ढंग से जांच हो जाए तो निगम के उन कर्मियों की पोल खुल जाएगी जिन्होंने संपत्तियां दबा रखी हैं या फाइल गायब कर दी हैं। जोन छह में एक कर्मचारी ने नगर निगम की लाखों रुपये की जमीन पर कब्जा कर रखा है। शास्त्रीनगर समेत कई जगह निगम की दुकानों पर लोगों ने मकान बना रखे हैं। इसकी जानकारी कर्मचारियों को है लेकिन चुप्पी साधे हुए हैं।

कर्नाटक के अफसरों व लाँमेकर्स के कारनामों के लिए यह रिपोर्ट देखें -- Volume 28 - Issue 16 :: Jul. 30-Aug. 12,

In no man's land

VIKHAR AHMED SAYEED

 

Karnataka: The report of the Task Force on encroachment of government land is likely to suffer a silent death.
२८ अगस्त दैनिक जागरण के अनुसार  जंगल बिभाग सोनभद्र में वनकर्मी ही वन भूमि बेच रहे हैं। यह सुनकर हैरत में पड़ गए न लेकिन सचाई यही है। अब तक सोनांचल में एक हजार बीघे से अधिक वन भूमि पर माफियाओं का कब्जा इसी वजह से हो चुका है। कुछ जमीन पर आदिवासी गरीब भी जोत कोड़ रहे हैं। भूमि बेचने वाले वनकर्मी कभी भी माफियाओं पर हाथ नहीं डालते। उधर समूह में कब्जा करने वाले आदिवासियों को ही हर बार निशाना बनाया जाता है और उन्हें जेल की हवा खानी पड़ती है। घोरावल ब्लाक स्थित विसुंधरी के ग्रामीणों ने प्रभागीय वनाधिकारी को पत्र भेजकर वन कर्मियों की इस करतूत का खुलासा किया है। बकौल ग्रामीण, एक से तीन हजार रुपये प्रति बीघा की दर से वसूली कर वन भूमि माफियाओं को जोताई के लिए दे दी जा रही है।

 

 
इसके अतिरिक्त देहात की छोटी बाजार,नगर-पंचायत, नगर-पंचायत नगर पालिका परिषद, नगर पालिका परिषद नगर निगमों में परिवर्तित होती रहती हैं और इस परिवर्तन के समय या इसके बाद इनके नियम जनता को परेशान करते हैं. जैसे लखनऊ, में मलिहाबाद स्थित हबीबनगर गांव के किसान अपने खेत के मालिक तो रहेंगे, लेकिन अगर उन्हें कोई नया निर्माण या विकास कार्य अपनी जमीन पर कराना होगा तो इसके लिए उन्हें लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) से अनुमति लेनी होगी। प्राधिकरण ने अपनी सीमा में शामिल 197 गांवों में एक छोटे से हिस्से को छोड़कर सभी का दर्जा कृषि श्रेणी में रखा है। एलडीए के नगर नियोजक बताते हैं कि इन 197 गांवों के स्वामियों से भूमि का स्वामित्व व मौजूदा स्थिति का ब्योरा लेने के बाद नगर एवं ग्राम नियोजन विभाग ने नए मास्टर प्लान का ड्राफ्ट तैयार लिया है। इसके आधार पर एलडीए आपत्तियां मांगेगा। सुल्तानपुर रोड पर 1800 एकड़ भूमि की श्रेणी आवासीय होगी। एलडीए की नोटिस मोहनलालगंज, गोसाईगंज, सरोजनीनगर, मलिहाबाद, मोहनलालगंज, काकोरी और सीतापुर रोड पर 27 जनवरी 2009 के बाद जिला पंचायत से स्वीकृत मानचित्र के बाद हुए निर्माणों पर एलडीए ने नोटिस दी है। इनमें डेंटल और इंजीनियरिंग कालेज भी शामिल है। उनसे भी एलडीए से मानचित्र पास कराने को कहा गया है। उल्लेखनीय है कि शहर से सटे इलाकों में जमीन के दाम आसमान छू रहे हैं।

मीटिंग,मीटिंग,सेटिंग

अप्रैल २०१३  में एक उच्चस्तरीय मीटिंग

उत्तर-प्रदेश सरकार  दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरीडोर (डीएमआईसी) के तहत यूपी में शुरुआत में हाईटेक इंट्रीग्रेटेड टाउनशिप का विकास करेगी। प्रोजेक्ट के तहत एक निवेश क्षेत्र तथा एक औद्योगिक क्षेत्र विकसित होगा। शुरुआत में यूपीएसआईडीसी तथा ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के पास मौजूद जमीन टाउनशिप के लिए उपलब्ध कराई जाएगी। इसके बाद जरूरत के हिसाब से हाईटेक इंट्रीग्रेटेड औद्योगिक टाउनशिप का विकास शुरू किया जाएगा। इसमें किसानों की सहमति से उनको स्टेक होल्डर बनाते हुए भूमि प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा। भूमि का मुनाफा उद्योग तथा सरकार को देने के बजाए किसानों को मिलेगा।

परियोजना के लिए दादरी-नोएडा-ग्रेटर नोएडा-गाजियाबाद क्षेत्र में 75 हजार करोड़ के निवेश की संभावना है। इससे लगभग 12 लाख लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। इस क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो इंडस्ट्रीज, आईटी तथा सनराइज इंडस्ट्री आएंगी। परियोजना पर केंद्र सरकार तीन हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी।
इस परियोजना के तहत जवाहर लाल नेहरू पोर्ट मुंबई से शुरू होकर दादरी-ग्रेटर नोएडा तक 1483 किमी लंबा औद्योगिक गलियारा बनना है। इसमें सात निवेश क्षेत्र तथा 13 औद्योगिक क्षेत्र चिह्नित किए गए हैं। यूपी में निवेश क्षेत्र के दोनों ओर 150-200 किमी का क्षेत्र डेडीकेटेड फ्रेट कॉरीडोर के रूप में चिह्नित है। परियोजना में दादरी-नोएडा-गाजियाबाद निवेश क्षेत्र में बोडाकी रेलवे स्टेशन का विकास, नोएडा-ग्रेटर नोएडा में मेट्रो रेल का विकास, दादरी-तुलगकाबाद-बल्लभगढ़ रेलवे लाइन का विकास, नोएडा-ग्रेटर नोएडा-फरीदाबाद एक्सप्रेस-वे, ऑटो मार्ट का विकास, पावर प्लांट की स्थापना, लॉजिस्टिक पार्क एवं टाउनशिप का विकास जैसी योजनाएं प्रस्तावित हैं। प्रोजेक्ट के लिए पैसे की व्यवस्था डीएमआईसीडीसी तथा ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी द्वारा की जानी है।यह फैसला अप्रैल २०१३  में एक उच्चस्तरीय मीटिंग में लिया गया है.
        मीटिंग ०२ सितम्बर २०११ -- मुख्य सचिव अनूप मिश्र की अध्यक्षता में
 इसी तरह की मीटिंग ०२ सितम्बर २०११ को हो चुकी है, उसके मिनट्स देखे--  
इंटीग्रेटेड और हाइटेक टाउनशिप को लेकर मुख्य सचिव अनूप मिश्र की अध्यक्षता में हुई उच्चस्तरीय समिति ने आवास विकास परिषद और विकास प्राधिकरणों को कुछ और सहूलियत दिये जाने को हरी झंडी दे दी है। इंटीग्रेटेड टाउनशिप के उपयोग में आने वाली रिंग रोड और मास्टर प्लान रोड के निर्माण के खर्च का भार सम्बंधित प्राधिकरण व इंटीग्रेटेड टाउनशिप के विकासकर्ता आपसी सहमति के आधार पर उठाएंगे। ऐसे मामलों को शुरुआती दौर में ही शासन में भेजने की आवश्यकता नहीं है। आपसी सहमति नहीं होने की दशा में शासन के पास मामला ले जाया जाएगा। इसी प्रकार हाइटेक टाउनशिप के तहत 60 फीसदी जमीन लेने वाले विकासकर्ता के ले आउट प्लान व भू उपयोग के मामले प्राधिकरण स्वयं पास कर सकेंगे। बाद में शासन की औपचारिक अनुमति प्राप्त की जायेगी।
सूत्रों के अनुसार लखनऊ और इलाहाबाद विकास प्राधिकरण की ओर से कहा गया कि ऐसी रिंग रोड व मास्टर प्लान जिसका उपयोग इंटीग्रेटेड सिटी के वाशिंदे करेंगे, उन पर आने वाला खर्च प्राधिकरण व विकासकर्ता किस अनुपात में उठाएं। इस पर समिति ने कहा कि आपसी सहमति के आधार पर प्राधिकरण व विकासकर्ता इस सम्बंध में स्वयं तय कर लें। इसके बाद हाइटेक टाउनशिप के सम्बंध में कहा गया कि भूमि खरीद के मानकों को पूरा करने वाले विकासकर्ताओं के मामलों में प्राधिकरण अनावश्यक विलंब न करें।

दोनों मीटिंग के कुछ शब्द सामान हैं, इंटीग्रेटेड टाउनशिप ,आपसी सहमति,सहमति,औपचारिक अनुमति ,अनुमति,60 फीसदी ,रिंग रोड,मास्टर प्लान ,वाशिंदे,शासन,इत्यादि .दोनों मीटिंग में अफसर और विकासकर्ता तो थे,लेकिन एक भी किसान इसमें सम्मिलित नहीं किया गया.
आगरा विकास प्राधिकरण  फतेहाबाद रोड पर इनर रिंग रोड के लैंड पार्सल के रूप में विकास प्राधिकरण 89 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित कर चुका था। इसके करार होने के बाद लैंड पार्सल की योजना खारिज हो गई। यह जमीन छितरी हुई है। अब प्राधिकरण आपसी सहमति से रिक्त भूमि लेकर यहां कॉलोनी विकसित करेगा। वजह चाहे जो बताया जाय करार होने के बाद किसी योजना को निहित स्वार्थ से बदलना तो कोई अफसरों से सीखे. परिणाम न कालोनी बनेगी न कोई काम होगा. दो-चार मुकदमें का खर्च जरूर सरकारको वहन करने पड़ेंगे.
टाउनशिप के बिकासकर्ता तो खुलेआम यह कहते है कि शुरू में राज्य के शीर्ष अफसर एयरपोर्ट पर आवभगत करते हुए आश्वस्त करते हैं कि आपके टाउनशिप की आवश्यक अनुमति/अनापत्ति प्रमाण पत्र साथ लेकर आया हूँ,और आपको किसी  स्तर पर कोई असुविधा\ नहीं होगी. बाद में अनेक बिभाग के अफसर अडंगा डालते हैं.प्रत्येक बिभाग के अफसर की चाहत/मांग रहती है कि उसे टाउनशिप में प्लाट/फ़्लैट दिया जाय,जो हमें पूरी करनी पड़ती है.हर टाउनशिप के प्रचार में लिखा मिलता है ----पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार के नियमों के अधीन स्वीकृत,नियंत्रकप्राधिकरण द्वारा अनुमोदित तथा अधिकृत ,राज्य प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा अनुमति प्राप्त,भारत सरकार द्वारा गठित बोर्ड द्वारा सुसगत पर्यावरण अनुमति प्रमाण पत्र स्वीकृत इत्यादि
अत: अपनी भूमिधारी भूमि का कृषि से इतर प्रयोग करना  चाहते हैं जैसे मल्टी स्टोरी बिल्डिंग बनानी है तो आपको निम्न कार्य करने पड़ेंगे.-
1---स्वत्व का प्रमाण-जो जोतबही,खतौनी,खसरा,भू-अधिकार एवं ऋण पुस्तिका इत्यादि की प्रामाणिक प्रतिलिपि
2-पटवारी (लेखापाल) द्वारा प्रदत्त सम्बंधित खसरा नंबर का नक्शा
3-सम्बंधित जिले में यदि बिकास प्राधिकरण है,,तो उसकी अनापत्ति प्रमाण पत्र
4-A-जिला  संचालक ,नगर एवं ग्राम निवेश का अनुमति प्रमाण पत्र (TCP Sanction Letter)
4- B -जिला  संचालक ,नगर एवं ग्राम निवेश का नक्शा पास प्रमाण पत्र (TCP Sanction Map)
5-भू-उपयोग प्रमाण-पत्र जिसमें भूउपयोग परिवर्तन भी सम्मिलित है
6-भू-परिवर्तन शुल्क की रसीद जो सचिव ,शासन ---के नाम डिमांड ड्राफ्ट में हो.
7-बिल्डिंग नक्शा जो समन्धित नगर-निगम या विकास प्राधिकरण या ग्राम का है तो जिला पंचायत से स्वीकृत हो
8-भू-सर्वे रिपोर्ट
9-बिल्डिंग का आऊटर प्लान
10-विकास योजना जैसे २०२१ या २०५१ इत्यादि जो लागू हो उसकी प्रतिलिपि
11-कार्यालय जिला पंचायत ,नगर-पालिका,निगम,या विकास प्राधिकरण जहां भवन बनाना हो,से मल्टी स्टोरी बनाने का रजिस्ट्रीकरण प्रमाण-पत्र
12-सम्बंधित ग्राम सभा के सरपंच से अनापत्ति प्रमाण पत्र
13-श्रम विभाग में पंजीकरण
 घर बनाने से पहले ठेकेदार, मिस्त्री व मजदूरों का श्रम विभाग में पंजीकरण कराना अनिवार्य है। पंजीकरण कराए बगैर अगर मकान बनवाया जाएगा तो गृहस्वामी पर श्रम विभाग द्वारा न सिर्फ एफआइआर कराया जाएगा बल्कि जुर्माना भी वसूला जाएगा।दरअसल श्रम विभाग द्वारा उत्तर प्रदेश भवन और अन्य सन्निर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड बनाया गया है। इसके माध्यम से मकान बनवाने से पूर्व विभाग को एक हजार रुपये शुल्क देकर पंजीकरण कराना होगा। इसके अलावा प्रति श्रमिक 50 रुपये पंजीकरण व 50 रुपये अंशदान कुल 100 रुपये जमा करने होंगे। यही नहीं भवन की लागत का एक फीसद कर्मकार कल्याण बोर्ड को भी जाएगा। इस योजना में सरकारी व गैर सरकारी ठेकेदारों को अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराना है। नए नियम के अनुसार गैर पंजीकृत ठेकेदार का बिल ही पास नहीं होगा। ठेकेदारों के द्वारा श्रमिकों का जो पंजीकरण कराया जाएगा वह प्रति साइट होगा। दूसरे साइट के लिंजीकरण कराना होगा। बताया कि श्रमिकों को एक परिचय पत्र दिया जाएगा जिसमें उन्हें दिए जाने वाले लाभ को अंकित किया जाएगा।
 डीएम हर महीने जिला श्रम बंधु की बैठक करते हैं.।
14-आयकर कानून पैन [परमानेंट अकाउंट नंबर]
 आयकर बिभाग पांच लाख रुपये से ज्यादा लेकिन 30 लाख रुपये से कम की परिसंपत्तियों की खरीद-बिक्री की जानकारी स्थानीय निगम निकायों और रजिस्ट्रारों से लेता है। 30 लाख रुपये या इससे ज्यादा की संपत्ति को लेकर आयकर कानून की धारा 285 [] [1][] के अंतर्गत रजिस्ट्रारों और उप-रजिस्ट्रारों को सालाना विवरण आयकर बिभाग को भेजने की व्यवस्था की गई है।
15- वाराणसी में घनी आबादी,बाढ़ प्रभावित क्षेत्र तथा नदी के किनारे भवन नहीं बन सकेंगे. उक्त (घनी आबादी,बाढ़ प्रभावित क्षेत्र तथा नदी के किनारे )का निर्णय अफसर करेंगे.
16- अगर आप छावनी परिषद् के अन्दर  निर्माण करा रहे हैं तो छावनी अधिनियम 2006 के अंतर्गत मुख्य अधिशासी अधिकारी छावनी परिषद् की लिखित अनुमति चाहिए. छावनी अधिनियम 2006 की धारा 238 के अंतर्गत मानचित्र स्वीकृत कराना अनिवार्य है. निर्माण के पूर्व उक्त अधिनियम की धारा 234,235 व 236 के अंतर्गत नोटिस देना आवश्यक है. बिना इसके  निर्माण धारा 247 के अंतर्गत दंडनीय अपराध है और धारा 248 व 320 के अंतर्गत निर्माण ध्वस्त किया जा सकता है.
उक्त प्रमाण-पत्रों के नमूने निम्न हैं.
               भवन निर्माता का प्रमाण-पत्र
              कार्यालय (नगर पालिका,निगम, प्राधिकरण,जिला पंचायत )
नाम,पता इत्यादि के बाद भवन निर्माता के रूप में रजिस्ट्रीकरण निम्न लिखित शर्तों के अधीन किया  जाता है:-
१- 
२—
अंत में-                   
दिखाए गए तथ्यों से भिन्न स्थिति में,अथवा किसी विवाद या बिभाग की आपत्ति आने पर जारी किया गया प्रमाण-पत्र स्वत: निरस्त माना जाएगा.
                   विकास प्राधिकरण का प्रमाण-पत्र
  ------------------------------------सर्वे क्रमांक ( खसरा नम्बर) के आवासीय उपयोग के ब्यपवर्तन (conversion)किये जाने में निम्न लिखित शर्तों के तहत प्राधिकारी को आपत्ति नहीं है:-
१---
२---
३—
४-यह अभिमत पत्र जारी होने बाद भी भविष्य में कभी भी नगर एवं ग्राम निवेश व अन्य अधिनियम के अधीन घोषित प्राधिकारी उक्त भूमि पर विकास योजना घोषित करने हेतु स्वतंत्र होंगे.
५- इस सम्बन्ध में संचालक नगर तथा ग्राम निवेश (TCP) से मार्ग दर्शन प्राप्त किया जाय.
६-विकास योजना २०२७ में प्रस्तावित मार्गों से प्रश्नाधान भूमि प्रभावित होने पर भूमि सुरक्षित रखनी होगी तथा सम्पूर्ण मार्ग का निर्माण स्वयं के ब्यय से किया जाना आवश्यक होगा.
    न्यायालय अनुविभागीय अधिकारी व्यपवर्तन
यहाँ मुकदमा दाखिल कर आदेश प्राप्त करना होगा.
उक्त मुकदमा में विकास प्राधिकरण का,नगर निगम या ग्राम में स्थिति की दशा में सम्बंधित का,तथा  संचालक नगर तथा ग्राम निवेश (TCP) का अनापत्ति प्रमाण-पत्र भी संलग्न करना होगा .इसके बाद न्यायालय राजस्व निरीक्षक,अधीक्षक भूमि परिवर्तन इत्यादि से प्रतिवेदन/रिपोर्ट  लेकर भू राजस्व ,पंचायत उप कर तथा प्रीमियम रूपये में जमा करने के आदेश के साथ ब्यवपर्तित करने अनुज्ञा निम्न लिखित शर्तों के अधीन  प्रदान की जाती है
१-
२-
३-
४-प्रार्थी द्वारा प्रस्तावित उपयोग से जनहित में किसी भी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं हो येसी व्यवस्था स्वयं को करनी होगी.
५- प्रार्थी द्वारा विकास प्राधिकरण से प्राप्त अनापत्ति पत्र में अंकित सभी शर्तों का अक्षरश:पालन
 किसी भी शर्त के उल्लंघन होने पर यह आदेश निरस्त माना जाएगा.
कार्यालय संचालक ,नगर तथा ग्राम निवेश (TCP)का प्रमाण-पत्र
 संचालक के यहाँ से एक जूनियर इंजीनियर जाएगा .संचालक के प्रमाण-पत्र में यह लिखा होगा कि प्रश्नाधीन भूमि का भूमि उपयोग विकास योजना २०२७ के अनुसार वर्तमान आवासीय निर्दिष्ट है.
निम्न लिखित अधिनियम /नियम /सक्षम अधिकारियों तथा संस्था से अनापत्ति /अनुज्ञा यदि आवश्यक हो तो लेना अनिवार्य होगा.( इसके  अंतर्गत जमीन संबंधी सभी प्राबिधानों का हवाला अंकित होगा)
यह भी क्लाज लिखा होगा-प्रश्नाधीन भूमि पर विकसित होने वाले भूखंडो/भवन के बिक्री /किराए पर देने के सम्बंधित इश्तहार प्रकाशन में नगर तथा ग्राम निवेश ,स्थानीय निकायों,नजूल डायवर्जन ,अनापत्ति,अरबन लैंड सीलिंग,,प्रदूषण नियंत्रण बिभागों से अनापत्ति संबंधी आदेशों के क्र० व दिनांकों का उल्लेख करना अनिवार्य होगा.
स्थल का सत्यापन ग्राम पटवारी व इस कार्यालय द्वारा किया जाएगा.
प्रतिलिपि निम्न को सूचनार्थ एवं आवश्यक कार्यवाही हेतु
१-अनुबिभागीय अधिकारी
२-मुख्य अधिकारी जिला पंचायत
३-क्षेत्रीय अधिकारी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
४- बिकास प्राधिकरण
५-नगर पालिका ,नगर निगम
                 जिला पंचायत/परिषद् का प्रमाण पत्र
यह मुख्य-अधिकारी जिला पंचायत जारी करेगा. आवेदन के साथ संचालक ,नगर तथा ग्राम निवेश (TCP) द्वारा अनुमोदित मानचित्र व उनके आदेश को लगाना होगा
१-संरचना स्वीकृत मानचित्रानुसार ( जो स्वीकृति का भाग है ) ही स्वयं के स्वामित्व की भूमि में ही की जायेगी.
२-
३-
 
 ५-पंचायत/परिषद् का प्रतिनियुक्तकोईभी पदाधिकारी किसी भी समय भवन निर्माण कार्य का निरीक्षण कर निर्देशदेगा जिसका पालन अनिवार्य होगा.
किसान द्वारा इतने लाइसेंस प्राप्त करना असम्भव है. यह मेरा आकलन नहीं है, कैग का सरकार व सरकार के अफसरों के बारेमें यहीं बिचार है--अनियोजित विकास के पीछे सरकारी हाथ
योजना लटकाने में दिल्ली महारथी : सीएजी---नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) रिपोर्ट में ना केवल दिल्ली सरकार द्वारा अलग-अलग कार्यो में अनियमितताएं बरतने की बातें कही गई हैं बल्कि योजनागत कार्य में ढिलाई बरते जाने पर भी सवाल उठाया गया है। रिपोर्ट यह भी कह रही है कि किसी भी योजना को लटकाने में सरकार को शायद महारथ हासिल है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिए अलग हाउसिंग बोर्ड की स्थापना एक ऐसा ही मामला है।पिछले 22 वर्षो से दिल्ली विकास प्राधिकरण से इतर एक अलग हाउसिंग बोर्ड का प्रस्ताव लटका पड़ा है। सख्त टिप्पणी करते हुए कैग ने कहा है कि इस विलंब के कारण शहर का योजनागत विकास तथा यहां रहने वाले नागरिकों को उनके बजट के अनुसार योग्य घर नहीं मिल पाए हैं। दिल्ली में मकानों की कमी को पूरा करने के लिए सातवीं लोकसभा की अनुमान समिति ने अपनी 50 वीं रिपोर्ट (मई 1981) में एक हाउसिंग बोर्ड स्थापित करने की अनुशंसा की थी, ताकि दिल्ली विकास प्राधिकरण को इन जिम्मेदारियों से मुक्त किया जा सके और लोगों को योग्य व उचित कीमत पर मकान मिल सके। इसके बाद संघीय मंत्रिमंडल ने अगस्त 1987 में एक अलग हाउसिंग बोर्ड की स्थापना हेतु प्रस्ताव दिया। जिसे 16 जून 1988 को शहरी विकास मंत्रालय ने दिल्ली के उपराज्यपाल को मंत्रिमंडल के निर्णय को लागू करने के निवेदन के साथ अवगत कराया। उपराज्यपाल की तरफ से 16 दिसंबर 1997 को लगभग दस वर्ष पश्चात सैद्धांतिक रूप से इसका अनुमोदन किया गया। दिल्ली मंत्रिमंडल ने 19 दिसंबर 1997 तथा 21 मार्च 1998 को इस प्रस्ताव को अनुमोदित किया तथा हरियाणा हाउसिंग बोर्ड अधिनियम 1971 को कुछ संशोधनों के साथ दिल्ली में लागू करने का निर्णय किया। इसके बाद गृहमंत्रालय से प्रस्ताव को अनुमोदित कराने के लिए भूमि एवं भवन विकास दिल्ली सरकार द्वारा अब तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए है। कैग ने कहा है कि सरकार के इस ढिलाई के कारण शहर का नियोजित विकास नहीं हो पाया। इस तथ्य से यह भी स्पष्ट होता है कि 2008 में दिल्ली सरकार ने 1639 अनाधिकृत कालोनियों को नियमित करने का एक अभियान भी प्रारंभ किया, जो यह बताता है कि दिल्ली का किस तरह से अनियोजित विकास हुआ।
सीएजी की रिपोर्ट में भूमि एवं भवन विभाग की कार्यप्रणाली पर अनेक प्रश्न उठाये हैं। 2005-2010 के दौरान भूमि से संबंधित 2615 मामलों में सरकार मुकदमा हारी है।
            लगभग तीन साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट को दी गई जमीन का अब तक भूमि उपयोग परिवर्तन न करने के मामले में हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार की खिंचाई की है। साथ ही कहा है कि वह दो दिन में अपना काम पूरा करे। हाईकोर्ट को दी गई 2.74 एकड़ जमीन का रिहायशी उपयोग से संस्थागत (इंस्टिटूशनल) उपयोग में परिवर्तन करना है ताकि हाईकोर्ट उस जमीन का उपयोग कर पाए। दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने इस संबंध में एक याचिका दायर कर कहा था कि कोर्ट को कुछ जमीन दी जानी चाहिए ताकि कम जगह की समस्या से निपटा जा सके। इसी याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने एक बार फिर से इस मामले में समय मांगा परंतु कोर्ट ने उनको समय देने से इंकार कर दिया। न्यायमूर्ति प्रदीप नंदराजोग व न्यायमूर्ति सुनील गौड़ की खंडपीठ ने कहा कि अब बहुत समय हो गया है। इस मामले को लगभग तीन साल बीत चुके है। अब तक संबंधित मंत्रालय ने अधिसूचना जारी नहीं की है। इसलिए शहरी विकास मंत्रालय जमीन के उपयोग में परिवर्तन करने संबंधी अधिसूचना बुधवार तक जारी करे। बार एसोसिएशन की तरफ से पेश अधिवक्ता एएस चंडिहोक ने कहा कि कोर्ट के वर्ष 2007 के आदेश के बाद मंत्रालय ने 2.74 एकड़ जमीन अॅलाट कर दी है। परंतु उसके उपयोग संबंधी अधिसूचना अभी तक जारी नहीं की गई है। मूलरूप से वह जमीन रिहायशी उपयोग के लिए है। परंतु अब कोर्ट को दे दी गई है तो उसका संस्थागत उपयोग करने की अनुमति दिया जाना जरूरी है। इसलिए मंत्रालय को निर्देश दिया जाए कि वह जल्द से कुछ कदम उठाए।
मा० उच्च-न्यायालय इलाहाबाद ने मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण द्वारा रिहायशी एवं पर्यटन विकास के लिए किए गए करीब 111 हेक्टेयर भूमि के अधिग्रहण को जिस तरह रद्द किया उससे शासन को चेत जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि यह जरूरी है कि वह किसानों की सहमति से ही उनकी भूमि का अर्जन करे। यदि किसानों की सहमति से उनकी भूमि ली जाए तो न्यायपालिका के हस्तक्षेप से बचा जा सकता है। किसानों की सहमति पाने के लिए यह आवश्यक है कि मुआवजा देने के मामले में उदारता का परिचय दिया जाए। अभी तो ऐसा लगता है कि राज्य सरकार और उसके विभिन्न विभाग इसी कोशिश में रहते हैं कि कैसे किसानों को डराफुसलाकर कम से कम दामों में उनकी जमीन ले ली जाए।
कर्नाटक के अफसरों व लाँमेकर्स के कारनामों के लिए यह रिपोर्ट देखें --
 Volume 28 - Issue 16 :: Jul. 30-Aug. 12,
In no man's land
VIKHAR AHMED SAYEED
 

Karnataka: The report of the Task Force on encroachment of government land is likely to suffer a silent death.

 

 जमीन से सम्बंधित इतने अधिनियम,नियम और शासनादेश हैं कि उनके अर्थ स्पष्ट नहीं हैं-जैसे हाउसिंग आवंटन ,ग्रुप हाउसिंग आवंटन,संस्थागत आवंटन ,सब लीज ,मल्टीपल यूज,आवासीय दर

ग्रुपहाउसिंग के लिए दर

कॉमर्शियल दर

औद्योगिक दर

संस्थागत आवंटन दर

रिक्रिएशन ग्रीन दर

अस्पताल दर

इनका अर्थ भगवान जाने, टैक्स पेअर्स तो इस जन्म में इनका मतलब नहीं जान सकते. वकील,अफसर,तथा कलक्टर स्टाम्प इसका भावार्थ ही बता सकते हैं

 सबसे अधिक जमीन के खेल (अनियमितता) नजूल भूमि का होता है  एक माह पहले (अप्रैल २०११)सलोरी के हरिहरन ने शिवकुटी थाने में तहरीर दी थी की ए०डी० एम० नजूल ने स्टेट लैंड को नजूल और नजूल को स्टेट लैंड बताकर हेराफेरी की है और अनधिकृत रूप से धन बनाया और जमीन खरीदी है.प्रतिलिपि मुख्यमंत्री और नियुक्ति सचिव को भी .नियुक्ति सचिव ने जांच मुख्या राजस्व अधिकारी व ए०दी०एम० सिटी को सौप दी.

 १४ अगस्त २०११ की मीटिंग का मिनट्स देखे. -----नजूल भूमि को अब बिल्डर आसानी से खरीद सकेंगे। रिक्त सरकारी नजूल भूमि को आवंटित व बिक्री करने के लिए नया शासनादेश जारी हो गया है। अब बस अड्डा, बस डिपो व आवासीय योजनाएं भी इस भूमि पर विकसित हो सकेंगे। आवास एवं शहरी नियोजन के सचिव ने कमिश्नर, डीएम व विकास प्राधिकरण उपाध्यक्ष को एक अगस्त में शासनादेश पर अमल करने को कहा है।

ऐसे होगा नजूल भूमि का आवंटन

स्थानीय निकाय, सार्वजनिक उपक्रम, परिवहन विभाग को बस अड्डे व बस डिपो, पर्यटन विभाग को पर्यटन सुविधा व रेन बसेरों के लिए निकाय को नजूल भूमि सर्किल रेट का 100 प्रतिशत नजराना लेकर एवं 10 प्रतिशत वार्षिक किराया की दर पर 90 साल के लिए पट्टे पर जमीन दी जा सकती है। ऐसे ही स्थानीय निकायों को मूलभूत सार्वजनिक सुविधा के लिए सर्किल रेट का 25 प्रतिशत नजराना लिया जाएगा।

आवास एवं विकास परिषद या विकास प्राधिकरण को नजूल भूमि का सर्किल रेट शत-प्रतिशत लेकर नजूल भूमि बिक्री की जाएगी। यह विभाग इस भूमि पर आवासीय योजना विकसित कर सकता है, पर वह किसी संस्था या बिल्डर को यह जमीन नहीं बेच सकता। 50 प्रतिशत आवास निर्माण गरीबों के लिए करने होंगे। निजी क्षेत्र को भूमि नीलामी के आधार पर बिक्री की जाएगी।

हजारों हेक्टेयर भूमि होगी कब्जा मुक्त

मेरठ मंडल में मेरठ की 1.11 करोड़ वर्ग मीटर समेत चार करोड़ वर्ग मीटर नजूल भूमि है। ब्रिटिश शासन ने अपने विरुद्ध आंदोलन कर रहे लोगों की जमीन पर कब्जा कर उसे नजूल की भूमि घोषित कर दिया। सन 1905-33 में अपने सिपहसालारों को यह भूमि पट्टे के रूप में आवंटित कर दी। 1 दिसंबर 1998 को कल्याण सिंह सरकार ने नजूल की भूमि को फ्री होल्ड कर दिया। असर हुआ कि मेरठ शहर के 43 पट्टेदारों ने अपने कब्जे वाली भूमि को वर्ष 1991 के सर्किल रेट का 40 प्रतिशत देकर अपने नाम करा लिया, जबकि अवैध रूप से कब्जा करने वालों ने उस समय के सर्किल रेट का 120 प्रतिशत देकर अपने नाम कराया। लेकिन सितंबर 2005 में अवैध रूप से इस जमीन पर कब्जा करनेवालों को हटा दिया गया। ऐसे में मेरठ में 1.11 करोड़ वर्ग मीटर जमीन में से 40 पर अवैध कब्जा है, पर अभी तक प्रशासन इस जमीन से कब्जा नहीं हटवा सका है। प्रशासनिक सूत्रों अनुसार, अभी तक कचहरी, स्टेडियम, विक्टोरिया पार्क की जमीन भी नजूल होते हुए फ्री होल्ड नहीं हुई है। अब यह शासनादेश आने के बाद यह जमीन फ्री होल्ड करने में आसानी होगी।

 
मैंने आज तक एक भी किसान को मल्टीस्टोरी बिल्डिंग बनाकर बेचते हुए नहीं पाया है. मल्टीस्टोरी बिल्डिंग  बन रहीं हैं,बिक रहीं हैं.इतने कानूनों की धौंस दिखाकर अफसर और दलाल इत्यादि किसानों को रोज लूट रहे हैं. एक नए सब्ज बाग़ का उदाहरण देखिये-
नयी आवास नीति 2013 में उ० प्र० के विकास प्राधिकरण  किसानों को रीयल इस्टेट कारोबारी बनायेंगे. उनकी कृषि की जमीन पर सड़क,पार्क,अस्पताल,इत्यादि बनाकर बिकसित करेंगे और इन विकासों के एवज में उनकी जमीन का एक भाग ले लेंगे. वास्तव में यह सब कसरत मा० सु० कोर्ट के उस आदेश से बचने के लिए की जा रही है,जिसके अनुसार किसान की कृषि भूमि उसकी सहमति के बिना नहीं नहीं ली जा सकती है.
 बिल्ट ऑपरेट ट्रांसफर (बीओटी) मॉडल
9600 करोड़ रुपये लागतकी छह लेन वाले 270 किमी लंबे आगरा-लखनऊ ग्रीनफील्ड एक्सप्रेसवे का निर्माण सार्वजनिक निजी सहभागिता के आधार पर किया जाना है। सरकार की मंशा है कि आगरा और लखनऊ के बीच न्यूनतम दूरी पर आधारित ग्रीनफील्ड एक्सप्रेसवे परियोजना के लिए कम से कम कृषि भूमि का अधिग्रहण किया जाए। एक्सप्रेसवे बन जने पर आगरा से लखनऊ की दूरी छह की बजाय साढ़े तीन घंटे में पूरी की जा सकेगी। आगराखनऊ ग्रीनफील्ड एक्सप्रेसवे परियोजना के विकासकर्ता के साथ 30 साल का कन्सेशन एग्रीमेंट किया जाएगा। इसमें परियोजना के निर्माण की अवधि शामिल होगी। बिड मूल्यांकन समिति की बैठक में 15 संभावित विकासकर्ताओं ने हिस्सा लिया था।अफसर और विकासकर्ता तो थे,लेकिन एक भी किसान इसमें सम्मिलित नहीं किया गया.
 भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 और वनाधिकार अधिनियम 1927 के अंतर्गत अब तक ब्रितानी हुकूमत और आजाद भारत में विकास और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सात करोड़ से भी ज्यादा देशवासियों को अपने मूल आवास स्थलों से विस्थापित कर दिया गया है।  पुर्नवास नीति 2003 के मानक पर एक भी पुनर्वास नहीं हुआ.  देश में कहीं भी विस्थापन एवं पुर्नवास नीति का पालन नहीं किया गया और किसानों से जमीन लेकर उनके परिवारों को जंगल में  पटक दिया गया है। स्कूल, पार्क, शुद्ध पेयजल, रोजगार सृजन, प्रशिक्षण, तालाब, स्वास्थ्य केंद्र बनाने से लेकर ऐसे ऐसे रंगीन सपने दिखाये गये थे कि मानो लगा कि अब किसान शहरी परिवेश में रहेंगे। उत्तराखंड में 65 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित है। यदि सिर्फ पहाड़ों की बात करें तो वहां सिर्फ साढ़े बारह प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है। बाकी में वन हैं। उत्तर प्रदेश के दौर के एक सरकारी निर्णय की वजह से कृषि योग्य यह भूमि भी वन भूमि में परिवर्तित होती जा रही है। 1997 में जारी इस आदेश के अनुसार गांव की नाप भूमि को छोड़कर सिविल सोयम तथा बेनाप भूमि स्वत: वन भूमि में परिवर्तित हो जाएगी। इन करीब चौदह सालों में पहाड़ों की हजारों हेक्टेयर कृषि योग्य बेनाप भूमि वन भूमि में परिवर्तित हो चुकी है। यह क्रम लगातार जारी है। यदि विकास कार्यो तथा सड़क आदि के लिए भूमि हस्तांतरित करने की जरूरत पड़ती है तो यह वह भूमि भी हो सकती है, जो बेनाप से वन भूमि में परिवर्तित हुई है। इसके एवज में राज्य को एक तरफ पौधरोपण के लिए धनराशि देनी पड़ती है। दूसरी तरफ विकास कार्यो के लिए ली गई वन भूमि की दोगुनी भूमि अलग से देनी पड़ती है। उत्तराखंड जैसे राज्य पर यह दोहरी मार पड़ रही है, लेकिन इस निर्णय को बदलने के राज्य सरकार के प्रयास फलीभूत होते नहीं दिखाई दे रहे हैं।निजी भूमि के अलावा देश के हर क्षेत्र की कुल जमीन का एक निश्चित भाग ऐसा होता है, जिसे उस क्षेत्र विशेष की सामुदायिक संपदा माना जाता है। मसलन, चारागाह भूमि को जिसके उपयोग और रखरखाव की जिम्मेदारी स्थानीय समुदाय की होती है, लेकिन खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था के बिखराव तथा पशु-संपदा में आई गिरावट के साथ अब इस तरह की जमीन पर स्थानीय दबंगों, राजनीतिक रूप से ताकतवर गुटों का कब्जा होता जा रहा है। केंद्र सरकार से लेकर पंचायतों तक के पास इस तरह की सामूहिक संपदा के सामाजिक उपयोग को लेकर कोई नीति ही नहीं है। लिहाजा, वह एक ऐसी सहज उपलब्ध संपत्ति बन गई है, जिस पर कोई भी ताकतवर समूह अधिकार कर सकता है। इस तथ्य पर अलग से ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि निजी भूमि के अलावा, सामूहिक प्राकृतिक संसाधनों जैसे गांव-समाज की साझा भूमि, नदी, वन क्षेत्र आदि स्वतंत्रता के बाद से ही सरकारीकरण का शिकार होते गए हैं। यानी जिन संसाधनों पर पारंपरिक रूप से समुदायों का स्वामित्व माना जाता था, उन पर भी सरकार काबिज होती गई है। इसका एक गंभीर परिणाम यह हुआ कि स्थानीय समाज अपने संसाधनों के रखरखाव के प्रति उदासीन होता चला गया। वन विभाग के अनुसार डोमरी(वाराणसी) में अराजी संख्या 310 में रेता दर्ज है। इसका क्षेत्रफल 98 हेक्टेयर है।
इस जमीन का पहले पट्टा किया गया था, जिसे बाद में निरस्त कर दिया गया। सर्वे में पाया गया है कि कछुआ सेक्चुअरी में छोटे-बड़े करीब 11 आश्रम और मठ हैं। आश्रमों के मालिकों का कहना है कि उन्होंने जमीन खरीदी है, लेकिन सरकारी रिकार्ड में रेता दर्ज है। इन आश्रमों को नोटिस देने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। कटेसर (चंदौली) में 12 हेक्टेयर का क्षेत्र कछुआ वन्य जीव विहार में निहित है।वन्य जीव संरक्षण अधिनियम-1972 की धारा 26 के तहत राज्यपाल ने 21 मई 09 को रामनगर किला से मालवीय रेल-सड़क पुल के बीच मातेश्वरी गंगा के क्षेत्र को कछुआ वन्य जीव विहार घोषित किया है। इसके पूर्वी तट पर डोमरी, कटेसर, कोदोपुर, रामनगर की सीमा लगती है। कटेसर को छोड़कर सभी गांव बनारस के हैं। डोमरी और कटेसर में कछुआ सेंचुरी का सर्वे करके पत्थर गाड़ा जा चुका है। साथ ही ग्राउंड पोजिशनिंग लेबल (जीपीएस) से मैपिंग भी कराई गई है, ताकि पत्थरों को उखाड़ने के बावजूद सेंचुरी के डिमार्केशन को मिटाया नहीं जा सकेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि ग्राम सभा की जमीन पर गांव के निवासियों के साझे अधिकारों को राज्य के संपत्ति के अधिकार के नाम पर खारिज नहीं किया जा सकता। इसके लिए चिगुरुपति वेंकटा शुभयया बनाम पालाडुगे अंजयया मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला उल्लेखनीय है। इसी तरह अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को आवंटन जैसे अपवादात्मक मसले को छोड़ दिया जाए तो किसी भी मामले में ग्राम सभा की जमीन का निजी हाथों में हस्तांतरण उचित नही माना जा सकता। कुछ जुर्माना लेकर रोहर जागीर के कब्जे को वैध कराने के लिए पंजाब के मुख्य सचिव द्वारा लिखे पत्र को भी अदालत ने गैर कानूनी घोषित कर दिया है। इतना ही नहीं एमआई बिल्डर्स बनाम राधेश्याम साहू 1999 (6) एससीसी 464 केस का हवाला देते हुए उसने यह भी जोड़ा कि ऐसे अवैध कब्जों पर करोड़ों रुपये लगाकर किए गए निर्माण का तरीका भी इन भूखंडों को फिर से सामुदायिक हाथों में हस्तांतरण को जाने से रोक नहीं सकता। मालूम हो कि इस मामले में पार्टी ने भूखंड पर 100 करोड़ की लागत से शॉपिंग मॉल का भी निर्माण किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि मॉल को गिराकर पहले से वहां मौजूद पार्क का निर्माण किया जाए। एक और मामले में तालाब के नाम पर दर्ज जमीन पर अवैध निर्माण के अन्य मुकदमे (हिंच लाल तिवारी बनाम कमला देवी, एआइआर 2001 एससी 3215) का हवाला देते हुए कहा गया कि ऐसी सामुदायिक जमीन को किसी भी सूरत में मकान निर्माण के लिए दिया नहीं जा सकता। ग्राम सभा की जमीनों को किस तरह निजी हाथों में सौंपा जाता है इसके लिए उत्तर प्रदेश में प्रयुक्त एक नायाब तरीके का भी अदालत ने विशेष उल्लेख करना जरूरी समझा। मालूम हो कि जमीन के एकत्रीकरण के लिए बने चकबंदी कानून में चकबंदी अधिकारियों की मिलीभगत से या नकली आदेशों के जरिए ऐसी स्थिति तैयार की जाती है कि लंबे दौर में राजस्व के मूल रिकार्डो के साथ तुलना करना असंभव ही हो जाता है। अपने आदेश के अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वह ग्राम सभा/ग्राम पंचायत/शामिलात देह जैसी साझी जमीनों पर अवैध कब्जे को समाप्त करने के लिए योजना बनाएं और इस बात को सुनिश्चित करें कि ऐसी साझा जमीनें ग्राम सभा को साझे इस्तेमाल के लिए फिर से दोबारा वापस लिया जा सके।
इसी कड़ी में "बहुचर्चित जलमहल झील लीज धोखाधड़ी" प्रकरण उल्लेखनीय है.जिसके ३ मामले राजस्थान उ०न्या० में लंबित हैं.मामले में आपराधिक धारा में भी मुकदमा चल रहा है.
घटनाक्रम
28
अप्रेल 2010 : मुरलीपुरा निवासी भगवत गौड़ ने जलमहल लीज प्रकरण को लेकर न्यायिक मजिस्ट्रेट क्रम-22 में इस्तगासा दायर किया, जिसमें बताया गया कि मानसगार झील व जलमहल स्मारक को फर्जी दस्तावेज से लीज पर देकर धोखाधड़ी की गई है।
29
अप्रेल 2010 : इस्तगासे पर न्यायालय ने ब्रह्मपुरी थाना पुलिस को जांच के आदेश दिए। पुलिस ने मामले को गम्भीरता से नहीं लिया। आदेश के बाद भी एफआईआर दर्ज नहीं करने पर न्यायालय ने तीन मई को पुलिस को फटकार लगाई। इसके बाद चार मई को ब्रह्मपुरी थाना पुलिस ने मामला दर्ज किया।

25 जून 2010 : ब्रह्मपुरी थानाधिकारी ने इस मामले में प्रकरण को क्षेत्राधिकार से बाहर बताते हुए एफ.आर. लगा दी। परिवादी के अधिवक्ता अजय कुमार जैन ने इसका विरोध किया और प्रार्थना पत्र पेश कर जांच अधिकारी अशोक चौहान पर कानूनी कार्रवाई की मांग की। विरोध की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने एफ.आर. को स्वीकार नहीं किया और 26 सितम्बर 2010 को दोबारा जांच के आदेश दिए।
15
दिसम्बर 2010 : ब्रह्मपुरी थाना पुलिस ने पहले की तरह इस बार भी मामले में एफ.आर. लगा दी। इस बारपुलिस ने बताया कि मामला बनता ही नहीं है। परिवादी की ओर से विरोध करने पर न्यायालय ने फिर जांच के आदेश दिए। इस पर जांच उच्चाधिकारी से कराने के आदेश दिए गए, जिस पर जांच अतिरिक्त उपायुक्त मदन मोहन मेघवाल को दी गई।

2 मार्च 2011 : मामले में ढिलाई को लेकर न्यायालय ने फिर पुलिस को फटकार लगाई। न्यायालय ने टिप्पणी की, जलमहल पर अनुसंधान में टालमटोल कर रही है पुलिस। न्यायालय ने पुलिस को 15 मार्च तक का समय दिया।
14
मार्च 2011 : पहले की तरह इस बार भी पुलिस ने मामले में एफ.आर लगा दी
 
10
पन्ने का आदेश
न्यायालय ने दस पन्ने के आदेश लिखा कि अभियुक्त विनोद जुत्शी, राकेश सैनी तथा ह्वदेश कुमार शर्मा ने जलमहल से लगती हुई जमीन एक षड्यंत्र के तहत नवरतन कोठारी को अधिकतम अवधि 30 वर्ष के बजाय 99 वर्ष की अवधि के लिए लीज पर दे दी। जो आम जनता के बजाय किसी व्यक्ति विशेष को लाभ पहंुचाने के लिए किया गया छल प्रतीत होता है।
इसे गम्भीर प्रकृति का अपराध पाया जाता है। इसलिए अभियुक्त ह्वदेश कुमार, राकेश सैनी, विनोद जुत्शी और नवरतन कोठारी के विरूद्ध धारा 420, 409 भा..., सहपठित धारा 120 बी भा... में प्रसंज्ञान लिए जाने के लिए पर्याप्त आधार पत्रावली पर विद्यमान हैं। न्यायालय ने चारों अभियुक्तों आरटीडीसी के तत्कालीन अध्यक्ष विनोद जुत्शी, एमडी राकेश सैनी, कार्यकारी निदेशक ह्वदेश कुमार शर्मा और व्यवसायी नवरतन कोठारी  के खिलाफ उक्त धाराओं में प्रसंज्ञान लिए जाने का आदेश जारी किया। आदेश में अभियुक्तों को गिरफ्तारी वारंट से तलब भी किया गया।
आरोप है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बेटी सोनिया अनखड़ और दामाद गौतम अनखड़ के लिए कंपनी विशेष को हजारों करोड़ रुपये के ठेके दे दिए। सामने आए दस्तावेजों के मुताबिक कल्पतरु ग्रुप के मालिक की एक कंपनी शोरी कंस्ट्रक्शन का आधा मालिकाना हक गहलोत की बेटे सोनिया का है। गहलोत के दामाद भी इसी कंपनी में निदेशक हैं। कंपनी के मालिक और गहलोत के पुराने मित्र मफतलाल महनोत ने आठ करोड़ कीमत का एक फ्लैट मुंबई के परेल इलाके में सोनिया को दिया। इस फ्लैट में सोनिया वर्षो से रह रही हैं और यह शोरी कंस्ट्रक्शन कंपनी का है। बेटी को फायदा पहुंचाने वाले कल्पतरु ग्रुप पर नजरें इनायत करते हुए गहलोत ने इस कंपनी को कई हजार करोड़ के प्रोजेक्ट्स दिए हैं। इनमें जयपुर का हैरिटेज स्थल राजमहल झील पर बनने वाला प्रोजेक्ट भी है। करीब तीन हजार करोड़ रुपये के इस प्रोजेक्ट को सरकार ने कंपनी को 99 साल की लीज पर दिया है। इसी कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिहाज से राजस्थान वेयर हाउसिंग कारपोरेशन के 38 गोदाम कल्पतरु ग्रुप से जुड़ी कंपनी शुभम लॉजिस्टिक को सौंप दिए। गंगानगर और टोंक में पॉवर प्रोजेक्ट के लिए कल्पतरु ग्रुप की कंपनियों ने आवेदन कर रखे हैं। जयपुर मेट्रो के काम में भी महनोत का हिस्सा बताया जाता है।
इसके अतिरिक्त मा०सु०को०ने एक अन्य मामले में राज्य सरकार, जयपुर विकास प्राघिकरण व जयपुर नगर निगम को मास्टर, जोनल प्लान में दर्शाई सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण या निर्माण को नियमित नहीं करने के निर्देश दिए हैं। जयपुर को वल्र्ड क्लास हेरिटेज सिटी बनाए जाने के लिए राज्य सरकार के सुझाव पर दो सेवानिवृत्त न्यायाधीश वी.एस. दवे और आई.एस. इसरानी की एम्पावर्ड कमेटी का गठन कर दिया , जो राज्य सरकार से विचार-विमर्श के बाद प्लान पर क्रियान्वयन सुनिश्चित करेगी।
न्यायालय ने कहा कि एम्पावर्ड कमेटी का कार्यकाल दो वर्ष का होगा, जो 15 सितम्बर 2011 से शुरू होगा। यह कमेटी राज्य सरकार, नगर निगम और जेडीए को सुझाव देगी कि जयपुर रीजन में अतिक्रमण, अनाघिकृत भूमि प्रयोग और अनाघिकृत निर्माण को कैसे रोका जा सकता है?
मध्य-प्रदेश में कुशाभाई ट्रस्ट की जमीन के आबंटन को रद्द करते हुए सु०को० की टिप्पणी अवलोकनीयहै. (http://indiankanoon.org/doc/1066844/) भोपाल के शाहपुरा के समीप ठाकरे न्यास को आवंटित करीब बीस एकड़ भूमि के संबंध में तय मानदंडों का पालन होने पर (6-4-11)सुप्रीम कोर्ट ने आवंटन निरस्त कर दिया। अखिल भारतीय उपभोक्ता कांग्रेस के अध्यक्ष बीएस शर्मा ने हाईकोर्ट द्वारा जमीन आवंटन की प्रक्रिया को सही ठहराने के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
ट्रस्ट ने क्यों मांगी थी जमीन?-
पार्टी के कार्यकर्ताओं से लेकर पदाधिकारी, विधायक एवं सांसदों को प्रशिक्षण देने के लिए।

आवंटन प्रक्रिया में गड़बड़ी क्या

मध्य-प्रदेश में कुशाभाई ट्रस्ट की जमीन के आबंटन को रद्द करते हुए सु०को० की टिप्पणी अवलोकनीयहै. (http://indiankanoon.org/doc/1066844/) भोपाल के शाहपुरा के समीप ठाकरे न्यास को आवंटित करीब बीस एकड़ भूमि के संबंध में तय मानदंडों का पालन होने पर (6-4-11)सुप्रीम कोर्ट ने आवंटन निरस्त कर दिया। अखिल भारतीय उपभोक्ता कांग्रेस के अध्यक्ष बीएस शर्मा ने हाईकोर्ट द्वारा जमीन आवंटन की प्रक्रिया को सही ठहराने के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।
ट्रस्ट ने क्यों मांगी थी जमीन?-
पार्टी के कार्यकर्ताओं से लेकर पदाधिकारी, विधायक एवं सांसदों को प्रशिक्षण देने के लिए।

आवंटन प्रक्रिया में गड़बड़ी क्या

25 सितंबर 2004 को राज्य सरकार ने उक्त जमीन के आरक्षण का प्रस्ताव भेजा था, जबकि कुशाभाऊ ठाकरे ट्रस्ट का गठन 25 दिसंबर 2004 को किया गया। भोपाल के मास्टर प्लान (2005) में यह जमीन भोपाल विकास प्राधिकरण की आवासीय योजना के लिए आरक्षित रखी गई थी। इसके बाद भी जमीन ट्रस्ट को आवंटित कर दी गई।


आवंटन के बाद सरकार ने इसका लैंड यूज आवासीय से गैर आवासीय कराया। इसमें टाउन एंड कंट्री प्लानिंग की आपत्ति को भी दरकिनार कर दिया गया।


मामला क्या है?


19
जून 2006 को कैबिनेट की स्वीकृति के बाद कुशाभाऊ ट्रस्ट को जमीन आवंटित की गई थी। उस समय प्रचलित कलेक्टर गाइड लाइन के हिसाब से करीब सवा पांच करोड़ रुपए कीमत की जमीन महज 25 लाख रुपए में दे दी गई। इसके खिलाफ कोर्ट में अपील की गई थी। कलेक्टर गाइडलाइन के अनुसार वर्तमान में इसकी कीमत ११३ करोड़ रुपए आंकी गई है।

अंधा बांटे रेवड़ी-------

 
नई दिल्ली 12 अप्रैल 2011डीडीए खेल गांव के फ्लैटों का एफएआर बढ़ जाने के लिए जहां पूरी तरह से निर्माणकर्ता कंपनी को दोषी ठहरा रहा है, वहीं ठीक इसी प्रकार का मामला वसंत कुंज की योजना में सामने गया है। इस योजना पर डीडीए स्वयं काम कर रहा है और इस संबंध में शुरू से नजर रखे हुए थे। बावजूद इसके फ्लैटों के टावरों की ऊंचाई बढ़ जाना डीडीए के वरिष्ठ अधिकारियों के गले नहीं उतर रहा है। उनका कहना है कि इस बारे में योजना अधिकारियों से जवाब तलब किया गया है और उन्हें चेतावनी दी गई है। मगर जो होना था सो हो चुका। अब टावरों का ऊपरी हिस्सा बगैर तोड़े ही हल निकाले जाने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि ऊपरी हिस्से के तोड़े जाने से एक तो फ्लैट के टावरों का लुक बदलेगा और नुकसान भी होगा। वहीं पानी के स्टोर करने के लिए कोई और रास्ता निकालना पड़ेगा। ऐसे में पूरा सिस्टम गड़बड़ा सकता है। उनका कहना है कि इस प्रयास में ग्रुप तीन के टावरों को नहीं तोड़ने की स्वीकृति मिल गई है। वसंत कुंज आवास योजना पर काम करने के दौरान ही डीडीए ने एयरपोर्ट अथार्टी आफ इंडिया में योजना की स्वीकृति के लिए आवेदन किया था। अगस्त 2009 में डीडीए की एयरपोर्ट के अधिकारियों के साथ हुई बैठक में तय किया गया कि टावरों की अधिकतर ऊंचाई 28 मीटर से अधिक नहीं होगी। बावजूद इसके टावरों की ऊंचाई 31 मीटर तक बढ़ गई। डीडीए से अब छत पर पानी की टंकियां को तोड़ने के लिए कहा गया है। अभी सभी टावरों में टंकियां नहीं बन सकी हैं।