Tuesday, October 24, 2023

पशु, मनुष्य और साधु


 पशु= भोग। मनुष्य =भोग + संग्रह ।  साधु  =भोग+ संग्रह + आलस्य प्रमाद  । इन बीमारियों से सावधान रहना चाहिए।भोगी व्यक्तिको दूसरा आदमी भी सुहाता नहीं। नतीजा यह होगा कि जो सुखमें बाधक होंगे, उनको मार देंगे ! 

सुवरण को ढूँढ़त फिरत, कवि व्यभिचारी चोर ।


चरण धरत धरकत हियो, नेक न भावत शोर ॥ 

व्यभिचारी और चोरको दूसरा अच्छा आदमी भी सुहाता नहीं । नतीजा यह होगा कि संयम, त्यागकी शिक्षा देनेवालोंको भी मारेंगे। यह नियम है कि दुःखी आदमी ही दूसरेको दुःख देता है।

भोग और संग्रहकी इच्छासे ही पाप होते हैं और पापोंका फल दुःख होता है। सुखकी लोलुपतासे ही सभी अनर्थ होते हैं । भोग तो अपनी इच्छासे करते हैं, पर फल (दुःख) बिना इच्छाके भोगना पड़ता है। सुख चाहनेवालेको वर्तमानमें पाप करना पड़ेगा और भविष्य में भयंकर दुःख भोगना पड़ेगा ।काम एष क्रोध एषः' (गीता 3 । 37) । तात्पर्य है कि भोग और संग्रहकी इच्छासे ही पाप होते हैं और पापोंका फल दुःख होता है।सभी भोग (सुख) दुःखोंके कारण हैं- 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' (गीता 5। 22) ।

 संसारके सुखभोगके लिये मनुष्य पैदा नहीं हुआ है। शब्दादि पाँच विषय, मान, बड़ाई और आराम- ये आठ भोग हैं । मान-आदर 'शरीर' का तथा बड़ाई 'नाम' की होती है। बड़ाई बड़ी भयंकर बीमारी है !

साधकका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका होनेसे वह मिथ्याचारी नहीं है। मिथ्याचारी तो विषयोंका चिन्तन करता है, पर साधकके द्वारा न चाहते हुए भी विषयोंका चिन्तन होता है। विषयोंका चिन्तन करना दोषी है, होना तो परवशता है। क्रिया एक दीखनेपर भी भावमें भेद है । एक चिन्तन करता है, एकका चिन्तन होता है । एकका उद्देश्य मान-बड़ाई आदिका है, एकका उद्देश्य भगवान्‌का है। भगवान् भाव देखते हैं। नीयत ठीक होनी चाहिये ।

सब संन्यासीके लिये कनक-कामिनी (धन और स्त्री)- का त्याग मुख्य है। गृहस्थके लिये परधन - परस्त्रीका त्याग मुख्य है सब बिकारों के नाशका उपाय है— सबमें भगवद्भाव करना । 

नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात् । स्पर्धाऽसूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि ॥

(श्रीमद्भा० 11 । 29। 15) 

'जब भक्तका सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर मेरा ही भाव हो है अर्थात् उनमें मुझे ही देखता है, तब शीघ्र ही उसके चित्तसे दोषदृष्टि, तिरस्कार आदि दोष अहंकार-सहित सर्वथा दूर हो जाते हैं।'

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । स उच्यते ॥ इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः(3।6)


'जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों) को ( हठपूर्वक) रोककर मनसे इन्द्रियों के विषयोंका चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी ( मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।'


मिथ्याचारीकी जो स्थिति है, वही स्थिति आरम्भमें साधककी भी होती है; परन्तु साधकका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका होनेसे वह मिथ्याचारी नहीं है।

जबतक साधन और असाधन दोनों रहते हैं, तबतक असाधनकी ही मुख्यता रहती है।सांसारिक काम करते हुए भी साधन नहीं छूटना चाहिये। साधन करते हुए संसार

याद नहीं आना चाहिये। उद्देश्य और अहंताको बदलना साधकके लिये खास बात है ।सावधानी ही साधना है। सत्संगति मनुष्यको सावधान करती रहती है। सावधानी आठों पहर रहनी चाहिये। भजन मुख्य हो, सांसारिक काम गौण हो-यह सावधानी है।

🎬▶️ https://youtu.be/5M0Xk7D63yA

चित्रलेखा 

Soothing song alongs you tube 

पंडित विजय शंकर मेहता ....जिम्मेदारों को अपने स्वभाव पर लगातार काम करना चाहिए। खासतौर पर कर्णधारों को स्वभाव समुद्र की तरह रखना होगा। जिम्मेदारी समुद्र की तरह गहरी और लहरों की तरह उत्साह भरी रहनी चाहिए। राम राज्य में वर्णन है ‘सागर निज मरजादां रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं...।’ अर्थात ‘समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों के द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं।’

अब हम चुनाव का समुद्री तूफान देख रहे हैं। न तो समझ होगी, न ही जानकारी, लेकिन सभी नेताओं के दावे राम राज्य के होंगे। चुनावी अर्थव्यवस्था के नीचे मजबूर, आहत भारत बहुत कम लोगों को नजर आएगा। राम ने अपने राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति को भी आर्थिक और नैतिक रूप से संपन्न किया था।

देश में एक बड़ा वर्ग है, जो जीवनभर धन का रूप, सुख और भोग देख ही नहीं पाए। उनके बच्चे भी निर्धन ही आए और गरीब ही चले गए। घोषणाओं के समुद्री शोर को अमीर-गरीब की खाई दिखाई नहीं देती। राम के नाम पर राज्य करने और पाने की चाहत करने वालों को राम राज्य में ईमानदारी से जुड़ना होगा।

राम राज्य की स्थापना में पांच लोगों की रुचि और भूमिका थी। इनमें दशरथ, कैकेयी, मंथरा चूक गए, असफल हो गए। भरत और राम ने राम राज्य का सही अर्थ जाना था। हम तय करें, हम इन पांचों में से किसकी भूमिका में रहेंगे।

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